सेमिनार में सवाल पूछने में हिचकिचाहट क्यों ?

सेमिनार में सवाल पूछने में हिचकिचाहट होना एक ऐसी स्थिति है, जिसका सामना कई लोग करते हैं, भले ही उनके पास प्रश्न का उत्तर हो या वे व्यक्तिगत रूप से या कक्षा में बोलने में सक्षम हों। इसे समझने और बदलने के लिए हमें इस पूरी प्रक्रिया को गहराई से समझना होगा।

जब सेमिनार में एक वक्ता अपनी बात रख रहा होता है, तो अक्सर हमारे मन में कई सवाल और उत्तर उभरते हैं। हम जानते हैं कि हमारे पास सही जवाब है या एक अच्छा सवाल है, लेकिन जैसे ही हम उसे ज़ाहिर करने की सोचते हैं, हमारे अंदर कुछ रुकावटें आ जाती हैं। ऐसा लगता है जैसे सवाल हमारे मन में फंस जाता है और हम हिचकिचाते हैं कि इसे पूछें या नहीं। कई बार हम हाथ भी नहीं उठाते, जबकि हमें खुद पर पूरा विश्वास होता है कि जो कहना है, वह सही है। तो, आखिर यह हिचकिचाहट आती कहाँ से है?

1. अतिरिक्त विचारों का भार:

जब सेमिनार में वक्ता अपनी बात कर रहे होते हैं, तो हम उनकी बातों का गहराई से विश्लेषण करने लगते हैं। हम यह सोचने लगते हैं कि जो सवाल हम पूछने जा रहे हैं, क्या वह सही दिशा में है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे सवाल को दूसरे लोग अनदेखा करें या उसका मज़ाक उड़ाएं? इन सारे सवालों का भार हमारे दिमाग पर इतना भारी हो जाता है कि हम उस पल में सवाल पूछने से रुक जाते हैं।

खासकर सेमिनार जैसी औपचारिक सेटिंग में, जहाँ कई लोग होते हैं, हमारे दिमाग में यह विचार चलने लगता है कि “अगर मैंने गलत सवाल पूछा तो लोग क्या सोचेंगे?” जबकि खुद से बात करते हुए या मास्टर स्टूडेंट्स के साथ बातचीत में ऐसी कोई चिंता नहीं होती, क्योंकि वहाँ हम एक अलग स्तर की सहजता और नियंत्रण महसूस करते हैं।

2. सुधार की चाह और परफेक्शन की उम्मीद:

हम अपने सवाल को लेकर अत्यधिक आत्म-संकोच का शिकार हो जाते हैं। हमें लगता है कि हमारा सवाल इतना परफेक्ट होना चाहिए कि वह सबके सामने सराहा जाए। हम सवाल को इस हद तक सोचते हैं कि उसे बार-बार अपने दिमाग में गढ़ने लगते हैं और उसी समय अंदर ही अंदर उसका उत्तर भी ढूंढने लगते हैं। परिणामस्वरूप, वह सवाल एक प्रकार से उलझ कर रह जाता है और हम उसे वक्ता के सामने नहीं रख पाते।

3. आत्म-आलोचना और सार्वजनिक प्रदर्शन का डर:

यह भी हो सकता है कि हम जब सार्वजनिक रूप से सवाल पूछने की सोचते हैं, तो हमारे अंदर आलोचना का डर बैठ जाता है। हम सोचने लगते हैं कि शायद हमारे सवाल को अन्य लोग गंभीरता से नहीं लेंगे, या यह बहुत सरल या बेसिक सवाल होगा। यह आत्म-आलोचना हमें उस सहजता से वंचित कर देती है, जो हमें व्यक्तिगत बातचीत में मिलती है। यहाँ फर्क यह होता है कि व्यक्तिगत बातचीत में हम अपने मन के विचारों को बिना किसी डर के व्यक्त कर पाते हैं, क्योंकि वहाँ हमारी आलोचना या फैसले का डर कम होता है।

4. विचारों का ओवरलैप और अंतर्मुखी स्वभाव:

कभी-कभी ऐसा होता है कि जब वक्ता कुछ कह रहे होते हैं, तो हम खुद से ही अपने दिमाग में उनका उत्तर ढूंढने लगते हैं। यह एक तरह का मानसिक संघर्ष होता है, जहाँ हम अपने विचारों में इतने उलझ जाते हैं कि हमें हाथ उठाने या सवाल पूछने का मौका ही नहीं मिलता। हम एक आंतरिक वार्तालाप में घिर जाते हैं, जहाँ हम खुद से ही बहस करने लगते हैं कि जो सवाल पूछने जा रहे हैं, वह उचित है या नहीं।

5. रुकी हुई क्रियाशीलता:

कभी-कभी समस्या केवल इस बात की होती है कि हमारे पास शब्द होते हैं, जवाब होते हैं, लेकिन हम उस समय कार्यवाही करने में असमर्थ होते हैं। सेमिनार के दौरान बोलने के लिए जो आत्मविश्वास चाहिए होता है, वह सार्वजनिक मंच पर आने से पहले ही क्षीण हो जाता है। यह आत्मविश्वास की कमी नहीं, बल्कि उस पल की अनिश्चितता होती है, जो हमें रोक लेती है। जैसे हम पूरी तरह से जवाब जानते हैं, परंतु वह जवाब हमारे मुँह से नहीं निकल पाता।

6. अंग्रेजी में सही तरीके से संवाद करने का दबाव:

सेमिनार में सवाल पूछने में हिचकिचाहट के पीछे एक और महत्वपूर्ण पहलू है—अंग्रेजी में सही तरीके से संवाद करने का दबाव। हालाँकि मैं अंग्रेजी में बात करता हूँ और व्यक्तिगत बातचीत में सहज महसूस करता हूँ, लेकिन सेमिनार के समय एक अलग ही मानसिक दबाव महसूस होता है। मन में यह चिंता होती है कि मैं सवाल ठीक से बोल पाऊँगा या नहीं, या फिर जो सवाल मैं पूछने जा रहा हूँ, वह सही अंग्रेजी में होगा या नहीं। यह दबाव और आत्म-संकोच उस समय और बढ़ जाता है, जब सेमिनार में अन्य लोग भी होते हैं और माहौल औपचारिक होता है।

यह दबाव विशेष रूप से तब आता है, जब हमें यह विश्वास नहीं होता कि हमारी अंग्रेजी का उच्चारण, वाक्य विन्यास, या शब्दों का चयन सही होगा। हम खुद से यह पूछने लगते हैं कि “क्या मैं सवाल को साफ और सटीक ढंग से रख पाऊँगा?” या “अगर मेरा उच्चारण ठीक नहीं हुआ तो लोग क्या सोचेंगे?” ये विचार हमें सवाल पूछने से रोक देते हैं, जबकि मन में हम पहले से ही जवाब या सवाल तैयार कर चुके होते हैं।

यह आत्म-संकोच और मानसिक दबाव, सेमिनार के माहौल की औपचारिकता और दूसरों के सामने खुद को सही ढंग से प्रस्तुत करने की चाहत से आता है। लेकिन यह याद रखना ज़रूरी है कि सवाल पूछने का उद्देश्य भाषा की परिपूर्णता नहीं, बल्कि विचारों की स्पष्टता और सीखने की प्रक्रिया में भाग लेना होता है।

इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए, जरूरी है कि हम अपनी अंग्रेजी संचार को लेकर ज्यादा चिंता न करें और सवालों को सरल और सीधे तरीके से व्यक्त करें। धीरे-धीरे इस अभ्यास से आत्मविश्वास बढ़ेगा, और भाषा का यह दबाव कम होता जाएगा।

कैसे बदलें इसे:

  1. प्रश्न को जटिल न बनाएं:
    हर सवाल सही या गलत नहीं होता। सवाल पूछने का उद्देश्य सीखना और समझना है, न कि यह साबित करना कि आप सही हैं। आप जो भी सोच रहे हैं, उसे सीधे शब्दों में ज़ाहिर करें, बिना किसी अतिरिक्त चिंता के।
  2. परफेक्शन की अपेक्षा को छोड़ें:
    हर सवाल या जवाब परफेक्ट नहीं होना चाहिए। खुद पर ज़्यादा दबाव डालने से सवाल और जवाब दोनों का महत्व कम हो जाता है। सवाल पूछना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यह संवाद और सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा है।
  3. सावधानी से प्रतिक्रिया देने का अभ्यास करें:
    अपने सवालों को रोकने की बजाय छोटे-छोटे अभ्यास करें। किसी छोटे से समूह में या किसी परिचित माहौल में अपने सवालों को बिना हिचकिचाहट के रखें। धीरे-धीरे बड़े समूहों में भी यह आत्मविश्वास आ जाएगा।
  4. स्वीकृति और अभ्यास:
    खुद से स्वीकार करें कि सार्वजनिक मंच पर सवाल पूछने की यह हिचकिचाहट सामान्य है, लेकिन इसे धीरे-धीरे अभ्यास और आत्मविश्वास के साथ कम किया जा सकता है। जितना ज्यादा आप सवाल पूछेंगे, उतना ही आत्मविश्वास बढ़ेगा।

निष्कर्ष:

हर सेमिनार एक अवसर है, जहाँ आप सवालों के जरिए अपने ज्ञान को बढ़ा सकते हैं। हिचकिचाहट को दूर करने का सबसे अच्छा तरीका है कि आप अपनी सोच को स्पष्ट रखें, अपने सवालों को ज्यादा जटिल न बनाएं, और सबसे जरूरी, खुद को व्यक्त करने के लिए बिना किसी डर के आगे बढ़ें।

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