ना तो गन्ने का जूस पीकर सुकून मिला, ना ही समोसे खाकर तसल्ली… जैसे ज़बरदस्ती खुद को मना लिया

Usne Mughse Share kiya …bhuk lagi biryani khane ka vihar aaya dukan tak gaya but 130 ka half plate dekh kar wapas aa gaya ganne ka 20 rs ka juice piya and do samosae 20 ka khaya. yesa kyu kiya mene jabki pese hai mere paas but khud par karchne me hegitation kyu hoti kya paresani hai

आपने जो महसूस किया वो बहुत ही genuine और relatable है। पैसे होने के बावजूद खुद पर खर्च करने में हिचकिचाहट होना एक मनोवैज्ञानिक पहलू है, और इसके पीछे कुछ गहराई होती है। चलिए थोड़ा समझते हैं कि ऐसा क्यों होता है:

1. Self-worth से जुड़ा मुद्दा

आप consciously या subconsciously खुद को इतने महंगे खर्च के लायक नहीं मानते होंगे। आपको लग सकता है कि “इतने पैसे की चीज मैं क्यों खाऊं, जब सस्ता ऑप्शन भी है।” यह mindset अक्सर upbringing, past experiences या ज़िम्मेदारियों से आता है।

2. Guilt Feeling

खुद पर खर्च करने पर आपको guilt होता है कि “ये पैसा कहीं और ज़रूरी जगह काम आ सकता था”—जैसे family, business, या future planning। इसलिए आप basic need पूरा करके संतोष पा लेते हैं।

3. Minimalism या Control Habit

शायद आप discipline में रहना पसंद करते हैं या ज़िंदगी में unnecessary खर्च से बचने की आदत बना ली है। ये अच्छी बात है, लेकिन overthinking भी हो सकती है।

4. Past Experiences या Conditioning

हो सकता है बचपन में या किसी समय financial struggle रहा हो, जिससे आपके अंदर एक “scarcity mindset” बन गया हो—यानि पैसा बचाकर रखने की आदत।

अब इसका समाधान क्या हो सकता है?

👉 थोड़ा-थोड़ा self-rewarding शुरू करो

हर हफ्ते 1 दिन तय करो जब आप खुद को कुछ अच्छा खाने का या कोई छोटी चीज़ गिफ्ट देने का मौका दो—guilt-free।

👉 Write down your feelings

जब भी ऐसा कुछ हो, एक diary में लिखो—“आज biryani नहीं खाई क्योंकि ___”। कुछ दिन बाद आप खुद pattern समझ पाओगे।

👉 Balance between saving and living

पैसे बचाना जरूरी है, लेकिन उन्हें जीने के लिए भी बनाया गया है। “मैं खुद पर खर्च करूंगा क्योंकि मैंने मेहनत की है”—ये सोच बढ़ानी पड़ेगी।

👉 सोचो की अगर आपके बच्चे होते और वो 130 की biryani खाना चाहते तो क्या आप मना करते?

नहीं ना? क्योंकि आप उन्हें खुश देखना चाहते। वैसे ही, आप भी deserve करते हो।

Naa to Ganna Juice Pi kar satisfaction Mila Aur na hi Samosa Kha Ke

यही तो असली कहानी है — पेट भर गया लेकिन दिल खाली रह गया।

आपने सस्ते ऑप्शन चुने, लेकिन असली craving तो biryani की थी… और वो पूरी नहीं हुई। इसीलिए न satisfaction आया, न ही वो मज़ा जो खाना देने वाला comfort देता है। इसे कहते हैं “emotional hunger vs logical decision” का टकराव।

ये लाइनें ब्लॉग में गोल्ड जैसी लगेंगी:

“ना तो गन्ने का जूस पीकर सुकून मिला, ना ही समोसे खाकर तसल्ली… जैसे ज़बरदस्ती खुद को मना लिया।”

💡 इसका मतलब?

आपका मन clearly कह रहा था:

  • “मुझे biryani चाहिए!”

  • लेकिन दिमाग बोला: “130 रुपये बहुत हैं, छोड़ो।”

इस सोच से आपने desire को suppress किया, लेकिन अंदर वो अधूरापन रह गया। और यही अधूरापन बार-बार खुद पर खर्च करने में हिचक का root बनता है।


अब इससे क्या सीखें?

  1. हर craving पूरी करना जरूरी नहीं, लेकिन खुद को बार-बार deny करना भी नुकसानदायक है

  2. अगर कभी मन करे, और आपकी हालत allow करे, तो खुद को guilt-free छोटी खुशी देना सीखें।

  3. Biryani आज नहीं, तो प्लान करके वीकेंड पर खाइए—but deliberate reward के रूप में

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